आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस चरितावली भाग 1 मानस चरितावली भाग 1श्रीरामकिंकर जी महाराज
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मानस के 24 भिन्न पात्रों के चरित्र का स्वतंत्र मूल्यांकन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिन्धु नररूप हरि।
रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार मुझे अपनी माता श्रीमती
गोदावरीबेन तथा पिताश्री गोवर्धनदास गणात्रा से मिला, पर मानस को रक्त में
मिलाकर जीवन को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे पूज्य सद्गुरुदेव रामायणमय
वाणी के पर्याय श्रीरामकिंकर जी महाराज ने किया।
उनका एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गई। फिर तो मैं उनको पाने और सुनने के लिए मतवाला हो गया, सबसे पहले मैंने उनको लन्दन से मुम्बई आकर ‘बिरला मातुश्री सभागार’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय वचन, कैसी गम्भीर वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण, उस समय मुझे वे ही दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहां पधारे और हमने उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत जाना-आना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने जाता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि वे एक महीना लन्दन आए और चौदह पन्द्रह प्रवचन किए। यहाँ जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। यहाँ के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गई। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदल देने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल होने के नाते मुझे वहां की भूमि बहुत आकर्षित करती है और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ पर प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गए, उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर हजारों वर्षों तक लोग उनको देखते और पढ़ते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करें, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिए अधिकृत है। इच्छा है कि यह साहित्य जिनको प्राप्त हो, वे न केवल स्वयं पढ़ें, अपितु ऐसे जिज्ञासुओं को भी पढ़ाएँ जिनको गोस्वामी तुलसीदास जी के साहित्य के प्रति अभिरुचि है। रामायणम् ट्रस्ट के अध्यक्ष श्रद्धेय मंदाकनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे यह सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, उनकी अहैतुकी कृपा ही थी वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में मुझे इस सेवा को करके जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
उनका एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गई। फिर तो मैं उनको पाने और सुनने के लिए मतवाला हो गया, सबसे पहले मैंने उनको लन्दन से मुम्बई आकर ‘बिरला मातुश्री सभागार’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय वचन, कैसी गम्भीर वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण, उस समय मुझे वे ही दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहां पधारे और हमने उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत जाना-आना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने जाता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि वे एक महीना लन्दन आए और चौदह पन्द्रह प्रवचन किए। यहाँ जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। यहाँ के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गई। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदल देने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल होने के नाते मुझे वहां की भूमि बहुत आकर्षित करती है और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ पर प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गए, उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर हजारों वर्षों तक लोग उनको देखते और पढ़ते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करें, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिए अधिकृत है। इच्छा है कि यह साहित्य जिनको प्राप्त हो, वे न केवल स्वयं पढ़ें, अपितु ऐसे जिज्ञासुओं को भी पढ़ाएँ जिनको गोस्वामी तुलसीदास जी के साहित्य के प्रति अभिरुचि है। रामायणम् ट्रस्ट के अध्यक्ष श्रद्धेय मंदाकनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे यह सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, उनकी अहैतुकी कृपा ही थी वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में मुझे इस सेवा को करके जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
गुरुदेव का चरण सेवक,
श्रीमती अंजू अरुण जी. गणात्रा
लंदन
श्रीमती अंजू अरुण जी. गणात्रा
लंदन
समर्पण
मानस चतुःशती के अवसर पर ‘मानस-मुक्तावली’ के लेखन के
पश्चात्
सम्भव है निष्क्रियता की ओर अभिमुख मेरा स्वभाव लम्बी अवधि तक लेखन से
छुट्टी ले लेता, किन्तु प्रभु को यह अभीष्ट नहीं था। इसीलिए श्री
घनश्यामदास जी बिरला के सुझाव के माध्यम से मानस-चरितावली के लेखन में लगा
दिया। मानस-मुक्तावली के प्रकाशन से श्री बसन्त कुमार जी तथा श्रीमती सरला
जी का आन्नदित होना स्वाभिक ही था। क्योंकि मानस चतुःशती के सन्दर्भ में
बिरला अकादमी ऑफ आर्ट एण्ड कल्चर की ओर से श्रीरामचतितमानस जैसी कालजयी
कृति से प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित किए जाएं उनकी ऐसी इच्छा थी पर
मानस-चरितावली के शीघ्र प्रकाशन के लिए इन दोनों की उत्सुकता कम नहीं थी।
क्योंकि यह उनके लिए अपने पूज्य पिताजी के संकल्प और सुझाव को साकार रूप
देने का प्रश्न था।
अस्वस्थता के कारण जब कभी लेखन में अवरोध की स्थिति आयी भी तो दम्पति के सौजन्यमय विनत जिज्ञासा ने मुझे प्रेरित किया कि मैं इस कार्य को यथासाध्य शीघ्र पूरा करूँ। फिर भी विलम्ब तो हुआ ही। संशोधन परिवर्धन का क्रम भी चला। सच तो यह है कि किसी भी कृति को पूरा कर पाना मुझे सर्वदा कठिन प्रतीत होता है। लेखन के पश्चात् पुनः का नूतन प्रवाह मुझे पुनर्लेखन की प्रक्रिया में लगा देता है। पर मैं यह भी नहीं जानता हूँ कि इस तरह तो कभी भी किसी कृति का पूरा हो पाना सम्भव ही नहीं। भगवान और भक्तों के चरित्र-लेखन में यह अपूर्णता भी इन चरित्रों की अनन्तता का ही संकेत है। इस अपूर्ण वृत्ति को पूर्ण के चरणों में अर्पित करते हुए यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता हूं कि ‘कहत नसाइ होय हिक नीकी। रीझहि राम जानि जन जी की।।’
अस्वस्थता के कारण जब कभी लेखन में अवरोध की स्थिति आयी भी तो दम्पति के सौजन्यमय विनत जिज्ञासा ने मुझे प्रेरित किया कि मैं इस कार्य को यथासाध्य शीघ्र पूरा करूँ। फिर भी विलम्ब तो हुआ ही। संशोधन परिवर्धन का क्रम भी चला। सच तो यह है कि किसी भी कृति को पूरा कर पाना मुझे सर्वदा कठिन प्रतीत होता है। लेखन के पश्चात् पुनः का नूतन प्रवाह मुझे पुनर्लेखन की प्रक्रिया में लगा देता है। पर मैं यह भी नहीं जानता हूँ कि इस तरह तो कभी भी किसी कृति का पूरा हो पाना सम्भव ही नहीं। भगवान और भक्तों के चरित्र-लेखन में यह अपूर्णता भी इन चरित्रों की अनन्तता का ही संकेत है। इस अपूर्ण वृत्ति को पूर्ण के चरणों में अर्पित करते हुए यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता हूं कि ‘कहत नसाइ होय हिक नीकी। रीझहि राम जानि जन जी की।।’
रामकिंकर
भूमिका
पिछले कुछ वर्षों में श्रीराम और महाभारत के काल-क्रम को लेकर अन्तहीन
विवाद चलता रहा है। एक ओर राम एवं कृष्ण के सम्बन्ध में हमारी आस्तिक
धारणा है तो दूसरी ओर पुरातत्व और इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि। इन दोनों कभी
सामंजस्य हो भी नहीं सकता। इसे मैं संग्रहालय और मन्दिर की दृष्टि कहना
चाहूँगा। संग्रहालय और मन्दिर में स्थित प्रतिमाओं में कितना साम्य, पर
कितनी दूरी ! संग्रहालय की मूर्ति पर दृष्टि जाते ही काल कलाकार और कला की
स्मृति आती है। बहुधा इन प्रतिमाओं के साथ परिचय-पट्ट प्राप्त होता है,
उसे हम ध्यान से देखते हैं। उसे पढ़कर हमारी काल-सम्बन्धी जिज्ञासा तृप्त
होती है। कलाकार की कलागत सूक्ष्मताओं को देखकर व्यक्ति चकित हो जाता है।
शिल्पकार के कौशल की सराहना करता है। वहाँ से संग्राहलय देखने का गर्व लेकर लौटता है। कभी-कभी इन मूर्तियों का वर्तमान मूल्य भी आँका जाता है और मूल्य के आँकड़ों विस्मय की सृष्टि करते हैं। मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमा के समक्ष पहुँचकर दर्शनार्थी श्रद्धा के नत हो जाता है। उसका आराध्य इष्टदेव होता है। उसकी जिज्ञासा काल, कलाकार और कला को लेकर नहीं होती क्योंकि मन्दिर में स्थित देवता उसके लिए भूत नहीं वर्तमान होता है। उसकी दृष्टि में वह जड़ पाषाण या धातु न होकर चैतन्य तत्त्व है। इसीलिए उसका सारा व्यवहार भी चैतन्य की भाँति होता है। वह अपने इष्ट का श्रृंगार करता है। उसके समक्ष पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य अर्पित करता है। वह कभी नहीं पूछता कि इसका निर्माता कौन-सा कलाकार है क्योंकि वह अपने इष्ट को ही सृष्टि का रचयिता मानता है, और मूल्य पूछने की धृष्टता तो वह कर ही नहीं सकता। वह देवता के चरणों में द्रव्य अर्पित करता है पर उसका सम्बन्ध मूल न होकर उसकी सामर्थ्य की सीमाओं से है। इसलिए उसके समपर्ण में साधारण धातु की मुद्रा से लेकर स्वर्ण-मुद्रा या हीरक हार तक हो सकता है। मन्दिर गर्व लेकर नहीं, उसे खोकर लौटता है। संग्रहालय में हमें वह दिखाई देता है जो दृष्टिगोचर हो रहा है। मन्दिर अगोचर को गोचर बनाने के लिए है।
व्यावहारिक दृष्टि से मन्दिर में जो कुछ भी है, वह काल, कलाकार और कला से ही सम्बन्धित है। इसे ही बुद्धिवादी सत्य कहेगा। पर आध्यात्मिक दृष्टि से यह खण्ड सत्य है। शिल्पकार मूर्ति का निर्माता है, यह सर्वथा स्थूल और अधूरा सत्य है। शिल्पकार स्वयं ही किसी अज्ञात रचयिता की कृति है उसमें जो चेतना और सामर्थ्य दिखाई देती है उसका मूल स्रोत कहाँ है ? निर्माण से पहले उसके मन में जो भावमयी मूर्ति प्रकट होती है उसकी सृष्टि कौन करता है ? वस्तुतः मूर्तिकार अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। इन समस्त अभिव्यक्तियों के पीछे जो एक चिन्मय तत्त्व है वह अखण्ड सत्य है। वह चैतन्य तत्त्व शाश्वत है इसलिए वह कब व्यक्त दिखाई देता है इसका बहुत महत्त्व नहीं है। कालातीत ही काल विशेष में दिखाई देता है। सीमित में असीम को, जड़ में चैतन्य को तथा काल में कालातीत को खोज लेना ही आस्तिक दृष्टि है। मन्दिर इसी दृष्टि का प्रतीक है।
शिल्पकार के कौशल की सराहना करता है। वहाँ से संग्राहलय देखने का गर्व लेकर लौटता है। कभी-कभी इन मूर्तियों का वर्तमान मूल्य भी आँका जाता है और मूल्य के आँकड़ों विस्मय की सृष्टि करते हैं। मन्दिर में प्रतिष्ठापित प्रतिमा के समक्ष पहुँचकर दर्शनार्थी श्रद्धा के नत हो जाता है। उसका आराध्य इष्टदेव होता है। उसकी जिज्ञासा काल, कलाकार और कला को लेकर नहीं होती क्योंकि मन्दिर में स्थित देवता उसके लिए भूत नहीं वर्तमान होता है। उसकी दृष्टि में वह जड़ पाषाण या धातु न होकर चैतन्य तत्त्व है। इसीलिए उसका सारा व्यवहार भी चैतन्य की भाँति होता है। वह अपने इष्ट का श्रृंगार करता है। उसके समक्ष पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य अर्पित करता है। वह कभी नहीं पूछता कि इसका निर्माता कौन-सा कलाकार है क्योंकि वह अपने इष्ट को ही सृष्टि का रचयिता मानता है, और मूल्य पूछने की धृष्टता तो वह कर ही नहीं सकता। वह देवता के चरणों में द्रव्य अर्पित करता है पर उसका सम्बन्ध मूल न होकर उसकी सामर्थ्य की सीमाओं से है। इसलिए उसके समपर्ण में साधारण धातु की मुद्रा से लेकर स्वर्ण-मुद्रा या हीरक हार तक हो सकता है। मन्दिर गर्व लेकर नहीं, उसे खोकर लौटता है। संग्रहालय में हमें वह दिखाई देता है जो दृष्टिगोचर हो रहा है। मन्दिर अगोचर को गोचर बनाने के लिए है।
व्यावहारिक दृष्टि से मन्दिर में जो कुछ भी है, वह काल, कलाकार और कला से ही सम्बन्धित है। इसे ही बुद्धिवादी सत्य कहेगा। पर आध्यात्मिक दृष्टि से यह खण्ड सत्य है। शिल्पकार मूर्ति का निर्माता है, यह सर्वथा स्थूल और अधूरा सत्य है। शिल्पकार स्वयं ही किसी अज्ञात रचयिता की कृति है उसमें जो चेतना और सामर्थ्य दिखाई देती है उसका मूल स्रोत कहाँ है ? निर्माण से पहले उसके मन में जो भावमयी मूर्ति प्रकट होती है उसकी सृष्टि कौन करता है ? वस्तुतः मूर्तिकार अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। इन समस्त अभिव्यक्तियों के पीछे जो एक चिन्मय तत्त्व है वह अखण्ड सत्य है। वह चैतन्य तत्त्व शाश्वत है इसलिए वह कब व्यक्त दिखाई देता है इसका बहुत महत्त्व नहीं है। कालातीत ही काल विशेष में दिखाई देता है। सीमित में असीम को, जड़ में चैतन्य को तथा काल में कालातीत को खोज लेना ही आस्तिक दृष्टि है। मन्दिर इसी दृष्टि का प्रतीक है।
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